Thursday, August 11, 2011

भक्ति काव्य का दार्शनिक आधार

भक्ति काव्य का दार्शनिक आधार
भक्ति, धर्म और दर्शन
  भारतीय तत्व चिंतन में भक्ति को ईश्वर की उपासन, आराधना, पूजा, सेवा आदि के मूल में स्थित प्रेरक भाव माना गया है ।
  मनुष्य अपनी सीमित शक्ति से इस विश्व का निर्माण, पालन और विध्वंस नहीं सकता अतः उसका ध्यान एक ऐसी विराट शक्ति की ओर जाता है जो इस दृश्यमान जगत के जन्म, स्थिति और संहार का कारण है ।
  उस शक्ति को दार्शनिकों ने ब्रह्म शब्द से व्यवहृत किया है ।
  यह ब्रह्म अपरिवर्तनीय, नित्य शुद्ध, मुक्त स्वभाव, सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान है । इसकी भक्ति का विधान ही ईश्वर भक्ति है ।
  ईश्वर भक्ति के विधान भी अनेक हैं । भक्ति के विधान ही धर्मों की सृष्टि के कारण बनते हैं ।
  कोई ईश्वर को सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान मानकर निराकार, निर्गुण रूप में व्यक्त करते हैं ।
  कोई उसे सगुण-साकार और अवतारी मानकर पूजते हैं ।
  इसी बिंदु से धर्मों में भेद उत्पन्न हो जाता है । 
  धर्म के साथ दर्शनों में भी ईश्वरीय सत्ता के स्वरूप भेद से दर्शन भेद होता है ।
  भक्ति के मूल में ईश्वर है और ईश्वर-भक्ति से धर्मों का उदय तथा विभिन्न विचार-धाराओं के दर्शनों का प्रचलन होता है ।
  भारतीय धर्म साधनाओं में भक्ति के विविध रूप लक्षित होते हैं ।
  प्रत्येक धर्म के ईश्वर के स्वरूप का निर्धारण अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर किया गया है ।
  भारतीय साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद है ।
  ऋग्वेद में जिस भक्ति का वर्णन है उसे विद्वानों ने अपनी विचारधारा के अनुकूल बनाकर भक्ति का विधान किया  है ।
  निर्गुण-सगुण, दोनों प्रकार से ईश्वर भक्ति का विधान वैदिक काल से ही चला आ रहा है ।
  भारत में वैदिक काल से ही भक्ति के विविध रूप विकसित होते रहे हैं ।
  हिंदी साहित्य में भक्ति के विविध रूप लक्षित किए जा सकते हैं ।
  प्राकृत और अपभ्रंश कालीन साहित्य पर दृष्टिपात किया जाए तो इसमें निर्गुण निराकार ब्रह्म के वर्णन के साथ इस संसार को मिथ्य और क्षणभंगुर कहा गया है ।
  सांसारिक सुख योग एवं ऐश्वर्य की अपेक्षा वैराग्य और अपरिग्रह को उत्तम ठहराया गया है ।
  अपभ्रंश साहित्य मुख्य रूप से जैन और सिद्ध कवियों द्वारा रचा गया ।
  स्वयंभू का पउमचरिउ, पुष्पदंत का महापुराण, धनपाल का भविसयत्त कहा आदि महाकाव्य और कनकाभर का करकउचरिउ नाम काव्य उल्लेखनीय हैं । 
  इन काव्यों में दार्शनिक विचारधारा को प्रमुख स्थान न देकर कथानक को ही ध्येय बनाया गया है ।
  सिद्ध साहित्य प्रवृत्ति मूलक है और नाथ साहित्य में संसार की क्षणभंगुरता और इंद्रिय निग्रह का प्रतिपादन किया गया है ।
  गोरखनाथ ने अपने शिष्यों को उपदेश करते हुए योगाभ्यास पर बल दिया है ।
  दार्शनिक विचारों का शास्त्र सम्मत वर्णन सिद्ध और नाथ साहित्य में उपलब्ध नहीं होता । इनकी भक्ति में योग और कर्मकांड की प्रधानता है, अतः इनकी भक्ति को दार्शनिक दृष्टि से परखना अनावश्यक है ।
  ईश्वर को निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और नित्य शुद्ध-बुद्ध स्वभाव मानने वाले भक्त निर्गुणोपासक कहाते हैं ।
  निर्गुण ब्रह्म का कोई विग्रह (शरीर) नहीं होता ।  वह पृथ्वी पर शरीरधारी बनकर अवतार नहीं लेता । 
  वह चराचर जगत में व्याप्त रहता है और उसकी भक्ति आराधना या उपासना के लिए किसी धातु, पत्थर, लकड़ी या चित्र के रूप में मूर्ति नहीं बनाई जाती ।
  अमूर्त रूप में कण-कण में व्याप्त रहने वाला सर्वशक्तिमान ईश्वर है अतः उसकी शक्ति के लिए बाह्य कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है ।
  मूर्ति पूजा का निषेध इसीलिए किया जाता है ताकि ईश्वर की सर्वव्यापकाता और सार्वभौम-शक्तिमत्ता खंडित न हो ।
  निर्गुण धारा के हिंदी कवियों में कबीर, नानक, रैदास मलूक दास, दादू दयाल, सुंदरदास आदि के नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है ।
  निर्गुण धारा के कवियों ने किसी मतवाद या शास्त्र विशेष को अपने लिए प्रमाण नहीं माना ।
  यदि इनके भक्ति विषयक सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष का आकलन करना हो तो शंकराचार्य के अद्वैतवाद के मेल में इन्हें देखा-परखा जा सकता है ।
  व्यावहारिक पक्ष में नाथों और सिद्धों की योग साधना तथा रहस्य भावना का प्रभाव भी लक्षित किया जा सकता है ।
  कुछ विद्वान इनकी रचनाओं एकेश्वरवाद, प्रपत्तिवाद, विशिष्टाद्वैतवाद प्रभाव को मानते हैं ।
  संक्षेप में, यह कह सकते हैं, निर्गुणधारा के संतकवि किसी एक दार्शनिक मतवाद से बँधे न होकर स्वानुभव के आधारा पर उन्हें जो सत्य प्रतीत होता उसी को स्वीकार करते हैं ।
  निर्गुण कवियों ने भी यही महसूस किया कि जगत का सृष्टिकर्ता एवं सूत्रधार ईश्वर ही है ।  वही इस अनंत जगत में असंख्य व्यक्तियों (जीवों) का पालन पोषण करता है ।
  वही ईश्वर समान-भाव से प्रत्येक जीव में व्याप्त है और फिर भी प्रत्येक व्यक्ति का जीवन नितांत मौलिक है ।
  संत कवि ब्रह्म, माया, जीव और जगत तथा मोक्ष के संदर्भ में अपना एक खास नजरिया बनाते दिखाई पड़ते है ।
  इनकी इस दार्शनिक सोच में ब्रह्म, जीव, माया, आदि तत्वों का क्या स्वरूप उभरता है, इस पर विस्तार से हम चर्चा करेंगे ।

1 comment:

  1. The Sands Casino: Home
    Experience a world in which the Sands casino is the most flawless example of 샌즈카지노 casino gaming. It is located at the top of choegocasino the Atlantic City Casino. The casino 바카라

    ReplyDelete