Friday, July 8, 2011

आदिकाल

आदिकाल
          आदिकाल हिंदी साहित्य धारा का प्रारंभिक काल-खंड है ।
          आदिकाल भारतीय चिंतन धारा का एक महत्वपूर्ण काल है, इस काल में परस्पर विरोधी तत्वों को एक साथ साहित्य में देखा जा सकता है ।
          राजनैतिक उथल-पुथल, विदेशी आक्रमण तथा दो-दो संस्कृतियों के मिलन का परिवेश आदिकाल की विशेषता है ।
          आदिकाल :स्वरूप
          अशांति व बिखराव से छिन्न-भिन्न सामाजिक स्थिति, विविध धर्म संप्रदाय एवं दर्शनों का फैलता प्रभुत्व था ।
          जन-सामान्य को आकर्षित-भ्रमित करने टोने-टोटके, तंत्र-मंत्र तथा जादू-चमत्कार की प्रवृत्तियाँ नज़र आती थीं ।
          जैन, वैष्णव, शैव, कापालिक, शाक्त, सिद्ध एवं नाथ आदि कई धार्मिक संप्रदायों की बहुत सी प्रवृत्तियाँ इस युग के समग्र साहित्य में देखी जा सकती हैं ।
आदिकाल :आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचार
          शायद ही भारतवर्ष के साहित्य के इतिहास में इतने विरोधों और स्वतोव्याघातों का युग कभी आया होगा ।  इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए, जिनकी रचनाएँ अलंकृत काव्य-परंपरा की चरम-सीमा पर पहुँच गई थीं और दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि हुए, जो अत्यंत सहज सरल-भाषा में अत्यंत संक्षिप्त शब्दों में अपने मनोभाव प्रकट करते थे ।  फिर धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी महान् प्रतिभाशाली आचार्यों का उद्भव इसी काल में हुआ था और दूसरी ओर निरक्षर संतों के ज्ञान-प्रचार का बीज भी इसी काल में बोया गया ।     (हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृ.1)
          आदिकाल : नामकरण एवं काल-सीमा
          नामकरण       काल-सीमा             नामकरणकर्ता
          वीरगाथाकाल   1050 1375विक्रमी संवत्       आचार्य रामचंद्र शुक्ल
          आदियुग    1050 1400 सं.          डॉ. श्यामसुंदर दास
          सिद्ध सामंतकाल  8वीं शती से 13 वीं शती राहुल सांस्कृत्यायन
          चारण काल    1000 1375 सं. डॉ. राम कुमार वर्मा
          आदिकाल           1000 1400 सं.  आचार्य हाजारी प्रसाद द्विवेदी
          आदिकाल       7वीं शती मध्य 14वीं शती मध्य डॉ. नगेंद्र
विवाद रहित सर्वाधिक स्वीकृत नाम - आदिकाल
आदिकाल की
राजनीतिक परिस्थितियाँ
          हिंदी साहित्य का यह प्रारंभिक काल भारतीय राजनीतिक जीवन के विश्रृंखल होने का काल है ।
          सातवीं-आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक के राजनीतिक घटना-चक्र ने हिंदी साहित्य को भाषा और भाव दोनों दृष्टियों से प्रभावित किया ।
          इसे राजनैतिक असंतुलन, विघटन तथा अव्यस्था का युग कहा जा सकता है ।
          इस युग की शुरूआत भारत के सशक्त हिंदू सम्राट हर्षवर्धन के काल से मान सकते हैं ।
          सम्राट हर्षवर्धन ने कनौज को अपनी राजधानी बनाकर सन् 606 ई. को सिंहासन संभाला था ।  647 ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु हुई ।
          इस समय दक्षिण में चालुक्य वंशीय पुलकेशन द्वितीय का शासन था ।
          ये दोनों शासक साम्राज्यवृद्धि की असफल चेष्टाएं समय-समय पर करते रहे हैं ।
          647 ई. में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उसके वंशजों ने भी काफी समय तक कन्नौज पर शासन किया ।
          किंतु बाद में पूर्व के पाल, दक्षिण के राष्ट्रकूट और पश्चिम के प्रतिहारों आदि के आक्रमण ने उनकी शक्ति को भी क्षीण कर दिया ।
          निरंकुश एकतंत्र शासन प्रणाली स्थापित होने से राजनीतिक चेतना और विदेशी आक्रमणकारियों से मुकाबला करने की शक्ति भी नष्ट होती चली गई ।
          देश अनेक राज्यों में बंट गया ।  संगठन बिखरता चला गया ।
          सामंतों के क्षुद्र-स्वर्थ और उनके पाशविक आतंक से जनता की दृष्टि अपनी सुरक्षा तथा जीविका तक ही सीमित होती चली गई ।
          युग की चेतना और साहित्य के संदेश में राष्ट्रीयता तथा देश भक्ति की भावना का अभाव स्पष्टतः देखा जाता है ।
          राजभक्ति प्रमुख होने लगी । शौर्य गान, अनुचित कार्यों का समर्थन का प्रचलन बढ़ता चला गया ।
          दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक हिंदुओं की सत्ता समाप्त होने और बाहरी आक्रमणों का दौर शुरू होने की यात्रा सहज ही देखी जा सकती है ।
          हिंदू शासकों की आपसी लड़ाइयाँ, मुगलों के आक्रमणों का सामना, एकता का अभाव और राज्यों का बिखराव, मान-अपमान के प्रश्न बने युद्ध तथा ज़र-ज़ोरू और ज़मीन या किसी सुंदरी राजकुमारी के स्वयंवर को लेकर हो रहे युद्ध सभी ने इस देश को खोखला और जर्ज़र बना दिया था ।
          सन् 800 ई. से 1026 ई. तक के पाल शासकों में भीम, जयपाल, आनंदपाल आदि ने गज़नी के तुर्कों का सामना किया तो कश्मीर के ललितादित्य, जयादित्य आदि शासकों को भी मुस्लिम शासकों से लोहा लेना पड़ा ।
          वीरता, शौर्य, आत्मबल और देश के हित में प्राणोत्सर्ग करने के व्यक्तिगत उदाहरण तो इस युग में भी कई मिल जाते हैं किंतु संगठन या संघ-शक्ति के अभाव से इनकी प्रभावी परिणाम दिखाई नहीं पड़ते ।
          सन् 800 ई. से 1026 ई. तक के पाल शासकों में भीम, जयपाल, आनंदपाल आदि ने गज़नी के तुर्कों का सामना किया तो कश्मीर के ललितादित्य, जयादित्य आदि शासकों को भी मुस्लिम शासकों से लोहा लेना पड़ा ।
          वीरता, शौर्य, आत्मबल और देश के हित में प्राणोत्सर्ग करने के व्यक्तिगत उदाहरण तो इस युग में भी कई मिल जाते हैं किंतु संगठन या संघ-शक्ति के अभाव से इनकी प्रभावी परिणाम दिखाई नहीं पड़ते ।
          संगठन के रूप में भी चाच वंश, प्रतिहार वंश, काबुल और पंजाब के शाही वंश, चौहान और कन्नौज वंश आदि ने समय-समय पर मुगलों की बढ़ती हुई सेनाओं का सफलतापूर्वक सामना किया ।
          आपसी फूट और कलह तथा विलासिता के कारण भारतीय शक्ति ध्वस्त होती रही । 
          इन परिस्थितियों के बीच इस्लाम ने भारत को समानता का मंत्र देकर दलितों को ऊपर उठने का संकल्प दिया ।
          रूढ़ियों और परंपराओं की जड़ हिलने लगीं ।
          इस्लाम के आगमन से लालसा जगी और आशा संचरित होने लगी।
          महमूद गज़नवी की मृत्यु के बाद 1173 में मुहम्मद गोरी गज़नी ने शासन संभाला ।
          उन दिनों भारत में अनेक शक्तिशाली राजपूत-राज्य भी थे ।
          सन् 1170 में कन्नौज की गद्दी पर जयचंद आसीन हुआ ।  इस समय दिल्ली-अजमेर के शासक चौहानवंशी पृथ्वीराज थे ।  इन दोनों के बीच वैर-भाव था ।
          मोहम्मद गोरी ने अपने आक्रमण के समय जयचंद के सहयोग से ही पृथ्वीराज को पकड़ने में समर्थ हो सका था ।   हालंकि बाद में उसने जयचंद को भी पराजित कर दिया ।
          मोहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत पर राज्य  किया ।  उसने पूरे हिंदी प्रदेश पर शासन किया ।
          इस प्रदेश में कन्नौज, काशी, अवध तथा पश्चिमी और उत्तरी बिहार आदि शामिल थे ।
          तदुपरांत भारत पर गुलाम वंश के खिलज़ी के शासकों ने आधिपत्य जमाया ।
          आदिकाल की काल-सीमा में शासन करने वाले तुर्क-अफ़गानी शासक थे ।  आदिकालीन अधिकांश साहित्य में हिंदू शासकों के या तो पारस्परिक युद्ध वर्णित हैं या तुर्कों-अफ़गानों से हुए युद्ध वर्णन वहाँ  उपलब्ध हैं ।
          अव्यवस्था, लूट-मार तथा बिखराव के इस युग में कवियों ने दरबारी आश्रय भी ग्रहण किया था और उनकी प्रशस्ति तथा शौर्य के गान भी लिखे थे । 
          ऐसे परिवेश और राजनीतिक स्थिति में जन्मे आदिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्ति इसी कारण वीर और श्रृंगार बनी ।  यों इस युग में नीति, भक्ति या धर्म और लोक को भी साहित्य में अपनाया गया परंतु प्रधानता युद्ध वर्णनों और शौर्य गानों की रही ।
          राजनीतिक अवस्था की दृष्टि से उस युग का भारत कलह और विघटन के कारण एक विदेशी सभ्यता तथा संस्कृति के संपर्क में आ रहा था ।
          अव्यवस्था, लूट-मार तथा बिखराव के इस युग में कवियों ने दरबारी आश्रय भी ग्रहण किया था और उनकी प्रशस्ति तथा शौर्य के गान भी लिखे थे । 
          ऐसे परिवेश और राजनीतिक स्थिति में जन्मे आदिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्ति इसी कारण वीर और श्रृंगार बनी ।  यों इस युग में नीति, भक्ति या धर्म और लोक को भी साहित्य में अपनाया गया परंतु प्रधानता युद्ध वर्णनों और शौर्य गानों की रही ।
          राजनीतिक अवस्था की दृष्टि से उस युग का भारत कलह और विघटन के कारण एक विदेशी सभ्यता तथा संस्कृति के संपर्क में आ रहा था ।
          मुस्लिम शासकों के दरबार में हिंदू कवि थे तो हिंदू शासकों के दरबार में मुस्लिम विद्वान भी थे ।  परस्पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी था ।
          भारत ने राजनीतिक पराजय के बावजूद अपनी सांस्कृतिक पहचान न खोने  दी ।
          आत्म-रक्षा के लिए किए गए संघर्ष का परिणाम हमें पूर्व मध्य युग की कविता में देखने को मिलता है ।
          राजपूतों के उदय तथा उनके अद्भुत शौर्य भरे युद्ध-कारनामे अगर युगीन साहित्य में समाहित हुए तो पराजित हिंदुओं के अहिंसक विश्वास को जैन-बौद्ध धर्म से संबद्ध साहित्य ने उजागर किया ।
          चंदबरदाई, अमीर खुसरो तथा अन्य कवियों के साहित्य में इसे सहज ही देखा जा सकता है ।
आदिकाल की धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ
आदिकाल की धार्मिक परिस्थितियाँ
       हिंदी साहित्य का आदिकाल धर्म एवं संस्कृति की दृष्टि से भी उथल-पुथल, लेन-देन एवं परस्पर प्रभावित करने-होने का काल था ।
       ईसा की 8 वीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक तो भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांत लगभग अपरिवर्तित ही रहे किंतु उनका बाह्य आकार काफी कुछ बदल चुका था ।
       धर्म भारतीय संस्कृति का एक अपरिहार्य अंग है इसलिए इस युग में यह परिवर्तन धर्म के क्षेत्र में भी हुआ  धर्म की दृष्टि से तो इसे अराजकता की युग भी कहा जा सकता है ।
       राजनीति की तरह हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद स्थिति बदली
       किसी केंद्रीय सत्ता के अभाव में जब देश खंड राज्यों में विभक्त हो गया तो धीरे-धीरे धर्म के क्षेत्र में भी अराजकता फैल गई
       वेद-शास्त्रों के विधि-विधान और कर्म-कांड को लेकर चलने वाले हिंदू धर्म तथा बौद्ध धर्म में भी संघर्ष होने लगे
       विभिन्न धार्मिक संप्रदाय अपने पवित्र रूप को सुरक्षित न रख पाए ।  ये सब विकृत होकर नए-नए रूपों में जनता के सामने आने लगे
       परिणामतः आम आदमी धर्म के वास्तविक स्वरूप को पहचानने में असमर्थ था । (बैद्ध धर्म जादू-टोने एवं तंत्र मंत्र में विश्वास शुरू करने लगा था)
       आम जनता सिद्धियों की भूल-भूलैया द्वारा दिगभ्रमित हो रही थी ।
       बौद्ध धर्म का विकास हीनयान, वज्रयान, मंत्रयान, सहजयान आदि कई शाखाओं में होने लगा था ।
       बैद्ध धर्म की इन शाखाओं में तंत्र, मंत्र, हठयोग आदि के साथ पांच मकारों (मांस, मैथुन, मत्स्य, मद्य तथा मुद्रा) को भी विशेष स्थान प्राप्त होता जा रहा था ।
       इनके बिना साधना अधूरी मानी जाती थी ।
       अपने इस रूप में यह मत विकारों को प्रश्रय देने लगा था तथा वाममार्गी हो गया था ।
       तंत्र-मंत्र, जादू-टोने तथा भोग-विलास को लेकर चलने वाले ये वाममार्गी ही बौद्ध-सिद्ध कहलाए ।
       दूसरी तरफ धर्म-नियम, संयम और हठयोग के द्वारा साधना के कठिन मार्ग पर बढ़ने वाले नाथ सिद्ध के रूप में जाने गए ।
       पर अपने मूल रूप में ये दोनों ही बौद्ध थे जो धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के विकृत या परिवर्तित रूप में ढलते चले गए ।
       दरअसल इस युग का धर्म-वैविध्य ही उसे संप्रदायों की दल-दल की ओर ले जा रहा था
आदिकालीन धर्मों के संदर्भ में डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के विचार –
       इस काल के हिंदी प्रदेश और उसकी सीमाओं के आसपास जैन धर्म, बैद्ध धर्म के वज्रयानी रूप, तांत्रिक मत, रसेश्वर-साधना, उमा-महेश्वर-योग-साधना, सोम-सिद्धांत, वामाचार, सिद्ध और नाथ-पंथ, शैव मत, वैष्णव मत, शाक्त मत आदि विभिन्न मत प्रचलित थे   जैन, वैष्णव, शैव शाक्त आदि संप्रदायों की प्रतिद्वंद्विता राष्ट्रीय शक्ति का ह्रास कर रही थी  भीतरी विद्वेष से जर्जर देश में इतिहास से टकराने वाला संकल्प न रह गया । दुर्भाग्यवश ये धर्म मनुष्य की सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति के साधन बनने के स्थान पर विच्छेद-भाव उत्पन्न करने के साधन बने ।
(हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ.63)
       बौद्धों के समान ही आदिकाल की धार्मिक पृष्ठभूमि के निर्माण में जैन धर्म का भी हाथ है ।
       जैन धर्म भी एक नए रूप में ढल रहा था ।
       एक ओर तो बौद्धों की तांत्रिक-पद्धति जैन धर्म में प्रचलित हो रही थी और दूसरी ओर जैन मताबलंबी साहित्यकार अपनी रचनाओं में पौराणिक कथाओं का कुछ परिवर्तित रूप में समावेश कर रहे थे ।
       इन रचनाओं में राम, कृष्ण आदि पौराणिक पात्रों को भी जैन धर्म में दीक्षित होते दिखाया जा रहा था ।
       आदिकाल के विभिन्न शासक न केवल अलग-अलग धर्मों के मानने वाले थे, वरन् वे उन धर्मों के प्रचार-प्रसार में भी सहायक थे ।
       पश्मिम बंगाल के पालवंशी गौड़ शाक बौद्ध थे जिन्होंने सहजयानी बौद्धों को संरक्षण दिया ।
       पूर्वी बंगाल के सेन शासक वैदिक धर्मावलंबी थे, अतः उन्होंने ब्राह्मण धर्म को प्रश्रय दिया ।
       गुजरात के शासक सिद्धराज जयसिंह और कुमार पाल ने जैन धर्म को प्रोत्साहन दिया ।
       इस युग में अनेक प्रकार के धार्मिक मत-मतांतर, तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके, प्रतिद्वंद्वी धार्मिक दल, इस्लाम की बढ़ती शक्ति, ब्राह्मण-विरोध, वेद-विरोध, वैदिक और बौद्ध धर्मावलंबियों के संघर्ष तथा सांप्रदायिक विद्वेष आदि कई स्वरूप एक साथ देखने को मिलते  हैं ।
       धर्म का वास्तविक स्वरूप किसी के सामने स्पष्ट न था और न ही उसे स्पष्ट करने वाला कोई सद्गुरू उपलब्ध था ।
       सभी अपने-अपने मत-प्रचार में डूबे थे ।
       इन विषम धार्मिक-स्थितियों ने साहित्य को भी प्रभावित किया ।
       विषम धार्मिक-स्थितियों ने साहित्य को भी प्रभावित किया ।
       इनके कर्मकांड और आडंबर यहाँ भी प्रवेश कर गए ।
       मिथ्या-विश्वास साहित्य में घर करने लगे ।
       धर्म के इस स्वरूप का प्रभाव भी आदिकाल के अधिकांश साहित्य पर सहज ही देखा जा सकता है ।
आदिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियाँ
       भारत संसार के अत्यधिक सभ्य एवं सुसंस्कृत देशों में गिना जाता था तथा यहाँ की कलाएँ पर्याप्त विकसित एवं उन्नत मानी जाती थीं ।
       यहाँ के लोगों का जीवन धर्म-भावना से ओतप्रोत, पवित्र एवं सुसंस्कृत था ।  इसकी झलक तत्कालीन स्थापत्य, मूर्ति एवं संगीत कला में भी दिखलायी पड़ती है ।
       भुवनेश्वर, खजुराहो, पुरी, सोमनाथ, बेलोर, कांची, तंजाऊर आदि मंदिर इसी कथन का प्रमाण हैं ।
       डॉ. नगेंद्र का मानना है कि आदिकाल दो संस्कृतियों के संक्रमण एवं ह्रास-विकास की गाथा है ।
       आदिकाल के प्रारंभ में भारतीय संस्कृति अपने उत्कर्ष के चरम शिखर पर आरूढ़ थी और जब आदिकाल का समापन हो रहा था तब मुस्लिम संस्कृति के स्वर्ण शिखर स्थापित होने लगे थे ।
       भारत में मुस्लिम संस्कृति के समय यहाँ की विभिन्न जातियों, मतों, आधार-विचारों आदि में दीर्घ काल से चली आती हुई समन्वय की एक व्यापक प्रक्रिया पूर्णता को पहुँच रही थी ।  हर्षवर्धन के विशाल साम्राज्य ने हिंदू धर्म और संस्कृति को राष्ट्रव्यापी एकता का आधार दिया था ।
(हिंदी साहित्य का इतिहास - संपादक : डॉ. नगेंद्र, पृ.73)
       इस्लाम संस्कृति का प्रवेश जब भारत में हुआ तो उससे हिंदू और इस्लाम संस्कृति एक दूसरे से प्रभावित हुए हैं, ऐसा होना सहज-स्वाभाविक था ।
       प्रारंभ में ये दोनों संस्कृतियाँ एक-दूसरे के सामने प्रतिद्वंद्वि के रूप में तन कर खड़ी होती हैं, पर जैसे-जैसे सत्ता में मुगलों का प्रभाव बढ़ता गया वैसे-वैसे इस्लाम संस्कृति की छाप हिंदू संस्कृति पर पड़ती गई ।
       तत्कालीन जन-जीवन तथा विभिन्न कलाओं पर यह छाप स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है ।
       इस्लाम मूर्तिपूजा का विरोधी रहा है । 
       महमूद गज़नवी एवं मुहम्मद गोरी ने सिर्फ लूटपाट ही नहीं की, मंदिरों में स्थित अनेक मूर्तियों को भी तोड़ा-फोड़ा ।
       अतः इस युग में मूर्ति कला का ह्रास होती स्थिति नज़र आयी थी ।
       महमूद भारत के अनेक शिल्पकारों को अपने साथ गज़नी ले गया, फलतः इस काल के वहाँ के स्थापत्य पर भारतीय शिल्प का प्रभाव भी लक्षित किया जा सकता है ।
       आदिकाल में संस्कृतियों का संक्रमण दिखाई देता है ।
       हिंदू संस्कृति मुस्लिम संस्कृति से तथा मुस्लिम संस्कृति हिंदू संस्कृति से किसी-न-किसी रूप में प्रभाव ग्रहण करती है ।
आदिकाल की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ
       आदिकालीन सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों पर पूर्व चर्चित राजनीतिक, धार्मिक वं संस्कृतिक स्थितियों का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ रहा था ।
       उक्त स्थितियों का ही परिणाम था कि समाज विभिन्न वर्णों तथा जातियों में पूरी तरह बंटा हुआ था ।
       संगठित सामाजिक व्यवस्था की आशा भी शेष न थी ।
       धार्मिक अराजकता ने सामाजिक जीवन को आडंबरयुक्त बना दिया था ।
       ब्राह्मणों की श्रेष्ठता धीरे-धीरे कम होने लगी थी ।
       रापूतों और क्षत्रियों का प्रभाव समाज में बढ़ रहा था ।  उनकी शक्ति और शौर्य की चर्चा चारों तरफ़ थी ।
       किंतु दुर्भाग्य यह था कि वे राष्ट्र और समाज के हित को भूलकर आपसी फूट और झगड़ों में डूबे थे ।  वैयक्तिक स्पर्द्धाओं से अंधे हो चुके थे ।
       हालांकि इस युग में भी बीसलदेव व राणा सांगा जैसे राष्ट्रीय भावना वाले क्षत्रिय थे किंतु अधिकांश लोगों में इस भावना का अभवा था ।
       जाति-पांति, ऊँच-नीच, गोत्र तथा वर्ण आदि के भी ही प्रबल थे ।
       सामाजिक रीति-रिवाज और विधि-विधानों का कट्टर-प्रचलन सामाजिक संगठन को छिन्न-भिन्न कर रहा था ।

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