Thursday, August 25, 2011

दार्शनिक मतवाद

दार्शनिक मतवाद
          हिंदी साहित्य में भक्तिकालीन दार्शनिक-पृष्टिभूमि विविधता एवं गरिष्ठता से सुसंपन्न थी ।  इसी कारण इस कालावधि को स्वर्णकाल कहते हैं ।
          शंकराचार्य के अद्वैतवाद सिद्धांतों से एक हद तक वैदिक धर्म में क्रांति पैदा हो गई थी ।  उन्होंने अपने दार्शनिक मतवाद पर सोचने के लिए जब अन्य आचार्यों को प्रेरित किया, तब शंकराचार्य के मायावाद का विरोध शुरू हो गया ।
          शंकराचार्य के मायावाद के विरोध करने वाले वैष्णवाचार्यों ने अलग-अलग दार्शनिक मतवादों की स्थापना की ।
          शंकराचार्य के अद्वैतवाद व अन्य आचार्यों के मदवादों का तात्विक विश्लेषण हम इस अध्याय में करेंगे ।
          ध्यातव्य है कि भक्तिकाल की दार्शनिक पृष्ठभूमि के विकास में, उसे सुदृढ़, समर्थ एवं गंभीर बनाने में इन तमाम मतवादों की विशिष्ट भूमिका रही है ।
          इन मदवादों के विश्वेषण के पश्चात हम उस काल में विकसित अन्य संप्रदायों का भी विवेचन करेंगे ।
          इस विश्लेषण व विवेचन के बाद, भक्तिकाल की वैचारिक पृष्ठभूमि को बहुआयामी व प्रभावी बनाने में इन दार्शनिक मतवादों व संप्रदायों का मूल्यांकन भी हम कर सकते हैं ।
अद्वैतवाद
          अद्वैतवाद सिद्धांत के प्रवर्तक शंकराचार्य हैं ।
          अद्वैतवाद का सिद्धांत समूचे विश्व में एक ब्रह्म की सत्ता में विश्वास करता है ।
          शंकराचार्य ने कहा था ब्रह्मा सत्यं, जगन्मिथ्या ।  ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या के इस सिद्धांत के प्रतिपादन से ब्रह्म को एकमात्र सत्य मानने से अन्य तत्वों या पदार्थों की सत्ता मिथ्या हो जाती है ।
          अद्वैतवाद के सिद्धांत में ब्रह्माजीवैवनापरः कहकर यह स्पष्ट किया गया है कि जीव को ब्रह्म से पृथक नहीं माना जाए ।
          जीवात्मा भी ब्रह्म का ही रूप है किंतु अविद्या या माया के कारण जीव अपने को ब्रह्म से पृथक मानता है ।
          जब यह माया का, अज्ञान या अविद्या का भ्रम दूर हो जाता है तब ब्रह्म और जीव एक हो जाते हैं ।
          अहं ब्रह्मास्मि का बोध होने पर पार्थक्य नष्ट होकर जीव और ब्रह्म के बीच ऐक्य की स्थापना होती है ।
          जगत के तमाम पदार्थों में भी ब्रह्म के साथ तादात्म्य की भावना विकसित होकर सर्वं खुल इदं ब्रह्म की प्रतीति होती है ।
          अद्वैत भाव के विकास का साधन ज्ञान है ।
          भक्ति मार्ग के कुछ अध्येताओं द्वारा इस सिद्धांत को स्वीकार न करने का कारण यही है कि भक्ति के लिए दो तत्वों की आवश्यकता है ।
          एक भक्त के रूप में दूसरा तत्व भगवान के रूप होना चाहिए ।  भक्ति के लिए भक्त और भगवान के बीच किसी न किसी रूप में भेद की चेतना होना आवश्यक है ।
          यदि एक ब्रह्म की ही सत्ता में विश्वास होगा तो भक्त को अपना अस्तित्व मिटाना होगा ।  भक्ति मार्ग में यह संभव नहीं है अतः दो तत्वों का अस्तिस्व अनिवार्य है ।
          भक्ति मार्ग के आचार्यों ने शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया ।  क्योंकि उनका मानना है कि भक्ति के लिए दो तत्वों की संकल्पना जरूरी है ।
          शंकराचार्य के मतवाद से विभेद करनेवाले आचार्यों ने अपनी-अपनी धारणा को जोड़कर अलग-अलग मदवादों का प्रवर्तन किया ।
विशिष्टाद्वैतवाद
          श्री रामानुजाचार्य इस मतवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं ।
          श्री रामानुजाचार्य रामभक्ति के उन्नायक आचार्यों में प्रमुख हैं ।  विष्णु के अवतारों में इन्होंने रामचंद्र (दशरथ पुत्र) को सर्वोपरि मानकर उपासना मार्ग को प्रशस्त करते हुए दक्षिण भारत में वैष्णवभक्ति का प्रचार किया ।
          रामानुज का जन्म सन् 1016 ई. मद्रास के निकट तिरुकुंदर गाँव में हुआ था ।
          शंकराद्वैत से भिन्न धाराणाओं की वजह से रामानुज ने जीव, जगत और ईश्वर के संबंध को लेकर एक नया दार्शनिक मत प्रस्तुत किया, जिसे विशिष्टाद्वैत की संज्ञा मिली है ।
          रामानुज के अनुसार जीव, जगत और ईश्वर के बीच उसी तरह का संबंध है जिस तरह का संबंध शरीर और उसके अंगों के बीच होता है ।
          जिस प्रकार शरीर के अंग शरीर से भिन्न भी हैं और शरीर से एकाकार भी, उसी तरह जीव भी ईश्वर से अलग भी है और उसका अंग भी ।
          इस प्रकार रामानुज जीव और ईश्वर के बीच अद्वैतता (दो का निषेध) मानते हैं लेकिन यह विशिष्ट किस्म की अद्वैतता है ।  इसीलिए रामानुज के सिद्धांत को विशिष्टाद्वैत कहा जाता है ।
          रामानुज माया की सत्ता को भी स्वीकार नही करते हैं ।
          रामानुज का मानना है कि जीव ब्रह्म से उत्पन्न होकर उसी में लीन हो जाता है ।
          जीव अपने अंगी रूप ब्रह्म को प्राप्त करना चाहता है ।  भक्ति उसकी इसी इच्छा की पूर्ति का मार्ग है ।
          इस सिद्धांत में ईश्वर की सगुण रूप में कल्पना की गई है ।  तदनुसार ब्रह्म सगुण और सविशेष है ।
          भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए वह (ब्रह्म) स्थूल-सूक्ष्म, चेतन-अचेतन विशिष्टरूपों का धारण करता है ।
          ईश्वर और जीव का शेष शेषी भाव संबंध है । जीव शेष है, ईश्वर शेषी अर्थात स्वामी है ।  ईश्वर की सेवा-पूजा, दास्तव स्वीकार कर ही जीव मोक्ष का अधिकारी हो सकता है ।
अतः दास्यभाव की भक्ति को आदर्श भक्ति माना गया है ।
          इस मतवाद के अनुसार ज्ञान मुक्ति का साधन नहीं है, भक्ति से ही परमात्मा प्रसन्न होकर मुक्ति प्रदान करते हैं ।
          रामानुज ने अपने दार्शनिक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए ब्रह्म सूत्रों पर श्रीभाष्य लिखा है ।
          जीव और ईश्वर के संबंध को विशिष्ट रूप में स्वीकार करने से इनका दार्शनिक सिद्धांत विशिष्टाद्वैत कहलाता है ।
          यह माना जाता है कि कबीर के गुरू रामानंद रामानुज की ही परंपरा से संबद्ध थे ।
          रामानुजाचार्य के इस विशिष्टाद्वैत सिद्धांत से प्रभावित होकर उत्तर भारत में काशीवासी रामानंद ने अपनी भक्ति में इनके दर्शन को कुछ परिवर्तन के साथ ग्रहण किया ।
          यह परिवर्तन सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर लक्षित किया जा सकता है ।  रामानंद ने अपना संप्रदाय चलाने के लिए राम की पूजा-अर्चना की विधि में भी परिवर्तन किया । अपना दीक्षा मंत्र को नया बनाया ।  तिलक और वेशभूषा में भी नवीनता को स्थान दिया ।
          इन सभी परिवर्तनों से रामानंदी संप्रदाय उत्तर भारत में फैल गया ।
          रामानंद के संबंध में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी शिष्य परंपरा में जाति-वर्ग विहीन शिष्यों को स्थान दिया । 
          जिन्हें दलित या निम्न कहा जाता था, उस वर्ग के कई शिष्य रामानंद की मंडली में थे ।  नारी को शिष्यत्व की दीक्षा देने वाले भी रामानंद ही थे ।  यह एक क्रांतकारी कदम था जो उस समय से रूढ़िवादी समाज के लिए नई चुनौती बनकर आया था ।
          हिंदी के भक्ति कवि कबीर निर्गुण विचारधारा के होने पर भी रामानंद के शिष्य थे और गोस्वामी तुलसीदास सगुणोपासक होने पर भी रामानंद के सिद्धांतों में शंकराचार्य और रामानुजाचार्य से साम्य रखते थे ।
          गोस्वामी तुलसदास ने रामचरितमानस और विनय पत्रिका में अपने दार्शनिक सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन किया है । 
          ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दोनों रुपों में वर्णन करने के कारण यह निश्चय करना कठिन हो जाता है कि तुलसी के आराध्यदेव सगुण है या निर्गुण क्योंकि तुलसी दोनों को अभेद मानते हैं ।
          सगुनहिं, अगुनहि नहिं कुछ भेदा ।  गावहि श्रुति पुरान बुध वेदा ।
          अगुन अरूप अलख अज जोई ।  भगत प्रेमवस सगुण सो होई ।
          इस प्रकार कई उक्तियाँ उनके ग्रंथों में मिलती हैं किंतु मूलतः उनके आराध्य राम सगुण ही हैं ।
शुद्धाद्वैतवाद
       वल्लभाचार्य के दार्शनिक मत को शुद्धाद्वैत की संज्ञा दी गई  है ।
       सगुण भक्ति संप्रदायों में श्री कृष्ण की भक्ति को व्यापक आयाम प्रदान करने वल्लभाचार्य का बड़ा योगदान रहा है ।
       उन्होंने हिंदी में किसी भी ग्रंथ की रचना नहीं की ।
       वल्लभाचार्य के पूर्वज आंध्र प्रदेश के निवासी थे किंतु दो पीढ़ी पहले वे काशी में जाकर बस गए थे ।
       वल्लभाचार्य का जन्म 1479 में हुआ था ।
       द्वैतवाद के प्रवर्तक शंकराचार्य ने माया का अस्तित्व माना था ।  वल्लभाचार्य ने माया रहित शुद्ध ब्रह्म को जगत का कारण बताया ।
       इनके अनुसार ब्रह्म नितांत शुद्ध है ।  माया से अलिप्त है ।  जीव नित्य है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती ।
       जीव तीन तहर के हैं, शुद्ध जीव, संसारी जीव और मुक्त जीव ।
       जड़ जगत उत्पन्न नहीं होता, जगत ब्रह्म का विकार रहित परिणाम है ।
       ब्रह्म सत् चित् और आनंद स्वरूप है, वह व्यापक है, नाश रहित और सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है ।  वह संपूर्ण जगत का आधारभूत है ।
       जो ब्रह्म मन और वाणी से परे है वह योग के ध्यान से, शुद्ध भाव से तथा अपनी इच्छा भाव से गम्य और गोचर भी हो जाता है ।
       ब्रह्म में आविर्भाव और तिरोभाव की शक्ति है ।  इसी शक्ति से वह एक से अनेक और अनेक से एक होता रहता है ।
       शुद्धाद्वैत मत में जीव और जगत को ईश्वर का अंश मानकर सत्य माना गया है ।
       वल्लभ संप्रदाय के अनुसार कृष्ण ही परब्रह्म हैं । वे पूर्ण पुरुषोत्तम, परब्रह्म, रसरूप हैं ।  धर्म संस्थापन के लिए भगवान श्री कृष्ण का अवतार होता है । वे आत्मा में भी वास करते हैं और बाह्य रूप में लीला भी करते हैं । 
       कृष्ण का अनुग्रह प्राप्त करने ही भक्त का परम लक्ष्य है ।
       यह अनुग्रह ही पुष्टि है इसलिए वल्लभाचार्य के सिद्धांत को पुष्टि मार्ग भी कहते हैं ।
       द्वैतवाद के प्रवर्तक शंकराचार्य ने माया का अस्तित्व माना था ।  वल्लभाचार्य ने माया रहित शुद्ध ब्रह्म को जगत का कारण बताया ।
       ईश्वर और जीव की सत्ता चाहे अभिन्न हो लेकिन भक्ति के लिए उनकी स्वतंत्र सत्ता मानना आवश्यक है ।
       जीव का चरम लक्ष्य ईश्वर की कृपा प्राप्त करना है, यही भक्ति का लक्ष्य है ।
       समस्त सृष्टि ईश्वर की लीला है ।  ईश्वर की लीला का ध्यान करना, उनका गायन करना भक्ति का अंग है ।
       जीव का अस्तित्व अंश रूप में है और ब्रह्म अंशी है ।  जीव में से भगवान के छः गुण (ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य) तब तिरोहित हो जाते हैं तब बंध होता है । 
       जीव भ्रम में बंधकर संसार चक्र में घूमता है ।  जीव अणुमात्र है और उसका तेज अल्प समार्थ्यवान भी है ।
       शुद्धाद्वैत मत में जैसे ब्रह्म सत्य है वैसे ही अंश जीव भी सत्य है और अंश-अंशीभाव से जीव और ब्रह्म की अद्वैतता है । यह अद्वैतता शंकराचार्य से सर्वथा भिन्न कोटि की है ।  इसलिए वल्लभ संप्रदाय में शंकराचार्य के मत को स्वीकार नहीं किया जाता ।
       जगत के संबंध में वल्लभाचार्य का मत है कि जगत अनेक रूपात्मक है परंतु यह अनेक रूपता ब्रह्म के एक सत् अंश का ही परिणाम है इसलिए ब्रह्म से अभिन्न है ।
       ब्रह्म कारण है और जगत कार्य है ।  यह परिवर्तन विकाली नहीं है, अविकृत है ।
       वल्लभ संप्रदाय में जगत और संसार में भेद माना गया है ।  सामान्यतः सभी लोग इन दोनों शब्दों को पर्यायवाची के रूप में प्रयोग करते हैं किंतु वल्लभ संप्रदाय में जगत ईश्वरकृत और संसार जीवकृत है ।
       संसार को जीव ने अपनी अविद्या, कल्पना अथवा भ्रम से रचा है इसलिए संसार मिथ्या है, जगत सत्य है ।  यही दोनों में भेद है ।
       माया के संबंध में वल्लभाचार्य का मत है कि माया के दो रूप हैं । 
       एक विद्या माया और दूसरी अविद्या माया ।
       यह माया ही इस सृष्टि का प्रपंच रचती है ।  जीव इस माया के अधीन होता है, भगवान माया के अधीन नहीं है ।
       अविद्या माया से जीव संसार में बंधता है और विद्या माया से जीव इस संसार से छूटता है ।  ब्रह्म इस माया के वशीभूत नहीं होते ।
पुष्टिमार्गीय भक्ति
          वल्लभाचार्य के दर्शन को शुद्धाद्वैतवाद, ब्रह्मवाद या अविकृत परिणामवाद भी कहा जाता है और भक्ति की दृष्टि से उसे पुष्टिमार्ग करते हैं ।
          जिस भक्ति से कृष्ण या ब्रह्म की अनुभूति होती है वह स्वयं कृष्ण के अनुग्रहस्वरूप है ।  इस अनुग्रह का नाम पुष्टि या पोषण है ।
          वल्लभाचार्य ने अपनी भक्ति पद्धति को नवीनता देने के साथ ही भक्तों के लिए भक्ति का विधान भी तैयार  किया ।  इस विधान को पुष्टिमार्ग कहा जाता है ।
          पुष्टिमार्ग की मूल प्रेरक शक्ति तो भगवत अनुग्रह ही है ।
          पुष्टि शब्द का अर्थ है पोषण अर्थात् भगवान का  अनुग्रह ।  यह अनुग्रह प्राप्त करके कोई भक्ति वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित हो सकता है ।
          अनुग्रह या पुष्टि भक्ति के लिए भक्त अपने प्रयत्न छोड़कर भगवान की कृपा पर ही निर्भर करता है ।  यही पुष्टिमार्गीय भक्ति की विशेषता है ।
          पुष्टि चार प्रकार की मानी गई है
Ø  मर्यादा पुष्टि
Ø  प्रवाह पुष्टि
Ø  पुष्टि-पुष्टि
Ø  शुद्ध पुष्टि
  • भगवान के गुणों का ज्ञान प्राप्त करते हुए और सामाजिक विधि-निषेध तथा लोक-मर्यादा का पालन करते हुए भक्ति करना     मर्यादा पुष्टि है ।
  • कर्म या सांसारिक जीवन में रुचि रखते हुए भी, भगवान के प्रति विशेष रुचि रखना प्रवाह पुष्टि है ।
  • भगवान का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उसी के स्नेह में मग्न रहना  पुष्टि-पुष्टि है ।
  • एकांत प्रेम-पूर्वक तथा आत्म-समर्पण के भाव से भगवान के अनुग्रह पर जीवित रहते हुए उसकी लीला, गुण-श्रवणादि में दत्तचित्त रहना शुद्ध पुष्टि है ।
  • वल्लभाचार्य ने शुद्ध पुष्टि को ही अपने संप्रदाय में स्थान दिया ।
  • शुद्ध पुष्टि के अनुसार केवल प्रेम और अनुराग के आधार पर कृष्ण का अनुग्रह प्राप्त कर हृदय में भक्ति की अनुभूति प्राप्त होती है । 
  • यह अनुभूति हृदय को श्रीकृष्ण का स्थान बना देती है और गो, गोप, गोपी, यमुना, कदंब आदि के रूप में उसे कृष्णमय कर देती है ।
  • वल्लभाचार्य ने अपने भक्त कवियों को अष्टछाप के नाम से स्थापित किया । यहाँ छाप का अर्थ है आशीर्वाद ।
  • चार भक्त कवियों को उन्होंने स्वयं दीक्षा दी (सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास और कृष्णदास) और चार भक्तों को उनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने (गोविंदस्वामी, छीतास्वामी, नंददास और चतुर्भुजदास) मंत्र दीक्षा देकर अष्टछाप में समाविष्ट किया ।
  • अष्टछाप के कवियों में लीलागान और भगवान के रूप-माधुर्य का विशेष वर्णन है ।
द्वैताद्वैतवाद
          निंबार्काचार्य द्वारा प्रवर्तित निंबार्क संप्रदाय भी श्री कृष्ण भक्ति का वैष्णव संप्रदाय है ।  इनके मत में ब्रह्म की कल्पना सगुण रूप में की गई है ।
          ब्रह्म समस्त दोषों से रहित और समस्त शक्ति से परिपूर्ण कल्याण गुणों का विधान है ।
          जीव ब्रह्म का अंश है और ब्रह्म अंशी है ।
          जीव अणु है, विभु नहीं, जीव अल्पज्ञ है, मुक्तवस्था में भी वह जीव ही है ।
          जीव का नित्यत्व चिरस्थायी है ।
          जीव और ब्रह्म भिन्न भी है और अभिन्न भी ।
          जगत की सत्ता है किंतु परिवर्तनशील है ।
          माया का बंध इस मत में स्वीकार्य नहीं है ।
          मुक्ति प्राप्ति के लिए मुख्य साधन भक्ति है ।
          ब्रह्म का सगुण और निर्गुण दोनों रूप में विचार किया जा सकता है ।
          भक्ति में आराध्य के रूप में राधा-कृष्ण की युगल भाव से किशोर भाव की स्वीकृति है ।
          राधा को कृष्ण की स्वकीया के रूप में माना जाता है ।  राधा के विवाहित रूप का इस संप्रदाय के भक्ति कवियों ने वर्णन किया है ।
          इस संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धांत दशश्लोकी ग्रंथ में उपलब्ध होते हैं ।
          इस संप्रदाय में भक्ति के पाँच रूपों का समर्थन है शांत, दास्य, वात्सल्य, सख्य और माधुर्य ।
          माधुर्य भक्ति को कांता भाव की भक्ति भी कहा जाता है ।
          इस संप्रदाय के कवि श्रीमह और गदाधरमह आदि ने राधा को उपास्य देवी मानकर राधा का गुणगान किया है ।
द्वैतवाद
          श्री मध्वाचार्य द्वारा प्रवर्तित मतवाद को द्वैतवाद की संज्ञा दी गई है ।
          श्री मध्वाचार्य का जन्म कर्नाटक प्रदेश में हुआ था ।
          उनके द्वारा प्रस्थानत्रयी में लिखे गए भाष्यों में द्वैतमत का समर्थन तथा युक्तियुक्त प्रतिपादन मिलता है ।
          द्वैत का अर्थ है ब्रह्म और जीव में भेद है ।
          समस्त जीव हरि के अनुचर हैं ।
          जीवों में ऊँच-नीच का तारतम्य है ।
          द्वैतमत के अनुसार जगत भी सत्य है ।  ब्रह्म और जगत का भेद वास्तविक है ।
          इस प्रकार मध्वचार्य ने शंकराचार्य के अद्वैत मत का पूरी तरह विरोध करते हुए द्वैतवाद की स्थापना की ।
          हरि (श्रीकृष्ण) की सर्वोच्च सत्ता है, भेद वास्तविक है, जीव हरि के अनुचार हैं, जीवों में ऊँच-नीत की श्रेणियाँ हैं, वास्तविक सुख की अनुभूति ही मुक्ति है, भक्ति ही मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय है । (मध्यचार्य के एक श्लोक का सार)
अन्यसंप्रदाय
   गौड़ी संप्रदाय
          बंगाल के नवद्वीप नगर में सन् 1486 को जन्मे विश्वंभर भविष्य में श्री कृष्ण चैतन्य के नाम से ख्यात हुए ।
          कृष्ण चैतन्य गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य भावना से जीवन व्यतीत करते रहे ।  कृष्ण भक्ति का प्रचलित मंत्र हरिबोल ही इनका कंठहार बन गया ।
          कृष्ण को आराध्य बनाकर इन्होंने नूतन शैली की जिस भक्ति का प्रचार किया उसमें कीर्तन और नृत्य का प्रमुख स्थान था ।  भक्तजन समवेत रूप से हरिबोल, हरे कृष्ण, हरे राधा आदि का उच्चारण करते हुए भजन-कीर्तन में संलग्न रहते थे ।
          श्री कृष्ण चैतन्य की यह कीर्तन पद्धति लोकप्रिय हो गई और बंगाल से ब्रजभूमि तक इसका प्रचार हो गया ।
          कृष्ण चैतन्य संप्रदाय के प्रवर्तक ने किसी दार्शनिक मतवाद की स्थापना नहीं की ।
          इन्होंने भागवत पुराण को ही आधार ग्रंथ माना और उसी के आधार पर कृष्ण-लीला का गान किया । 
          परवर्ती काल में इनके भक्तों और शिष्यों ने अवतार के रूप में इनकी पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी ।
          श्री कृष्ण चैतन्य ने प्रेम को सर्वोच्च पुरुषार्थ के रूप में प्रतिष्ठित कर भक्तों को ज्ञानमार्ग की दुरूह और दुर्गम साधना से मुक्त किया ।
          इनके तीन सौ वर्ष बाद बलदेव विद्याभूषण नाम के विद्वान पंडित ने चैतन्य संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धांत की स्थापना की जिसे अचिंत्य भेदाभेद नाम से जाना जाता है ।  वास्तव में यह परवर्ती कल्पना है ।
          राधा को इस मत में परकीया माना जाता है ।  यह परकीया अन्य मतों से भिन्न है ।
  राधावल्लभ संप्रदाय
          ब्रजमंडल के कृष्ण भक्ति संप्रदायों में श्री हित हरिवंश द्वारा प्रवर्तित राधावल्लभ संप्रदाय भी एक प्रसिद्ध भक्ति संप्रदाय है ।
          इस संप्रदाय मं राधा की भक्ति की प्रमुखता है ।
          कृष्ण-राधा का युगल भाव से उपासना की स्वीकृति है ।  राधा कृष्ण की भक्ति के लिए नित्य विहार की स्थिति सर्वश्रेष्ठ है ।
          राधा और कृष्ण का वियोग नहीं होता ।  उनकी लीलाओं का दर्शन ही सबसे बड़ा सुख और सबसे बड़ी सिद्धि है ।
          विग्रह (मूर्ति) की पूजा के लिए केवल श्रीकृष्ण की मूर्ति ही मंदिर में रहती है ।
          राधा के विग्रह के स्थान पर एक गद्दी रखी जाती है तो राधा की भावना जग्रग कर भक्त के मन को राधामय बना देती है ।
          इस संप्रदाय में शताधिक उच्चकोटि के कवि हुए हैं उनमें हित हरिपंश, सेवक जी, ध्रुवदास, हरिराम व्यास, नेही नागरी दास, अनन्य अलि, चाचा वृंदावन दास आदि प्रमुख हैं ।
          इस संप्रदाय के प्रवर्तक हित हरिवंश जी ने किसी दार्शनिक मतवाद की स्थापना नहीं की ।
          यह दर्शन सापेक्ष्य संप्रदाय नहीं है, साधना परक संप्रदाय है ।  अतः दर्शन की छानबीन करना निरर्थक है ।
 सखी संप्रदाय (हरिदास संप्रदाय)
          पंद्रहवी शती में स्वामी हरिदास ने वृंदावन में आकर निधिवन को अपना निवास स्थान बनाया ।  इसी वन में उन्होंने विहारी जी की मूर्ति का प्राकट्य किया जा उनकी और उनके अनुयायियों की आराध्य प्रतिमा हो गई ।
          स्वामी हरिदास दार्शनिक व्यक्ति नहीं थे ।  वे साधक और उच्च कोटि के भक्त थे । अपरिग्रह और वैराग्य में उनकी दृढ़ आस्था थी ।  किसी धातु का वे स्पऱ्श नहीं करते थे ।  सूती-रेशमी वस्त्र धारण नहीं करते थे ।  यमुना किनारे बांस की टट्टी बनाकर उसमें रहते थे ।  सांसारिक प्रलोभनों से उनका कोई सरोकार नहीं था ।
          उन्होंने जब अपनी भक्ति का प्रचार किया को उन्हें भक्त का सर्वश्रेष्ठ रूप सखी भाव में लीन रहना लगा ।
          जब भक्ति अपना पौरुष जनित गर्व और दंभ छोड़कर सखी बनकर राधाकृष्ण की लीलाओं में लीन हो जाता है तो निरभिमानता ही उसकी संपत्ति होती है ।
          राधा-कृष्ण की लीलाओं का दर्शन बड़े अहो भाग्य का उदय माना जाता है । 

No comments:

Post a Comment