Friday, October 26, 2012

वाक्य विज्ञान


वाक्य विज्ञान


वाक्य विज्ञान की अवधारणा

वाक्य संबंधी क्रमिक अध्ययन वाक्य विज्ञान में किया जाता है ।
Ø  ध्वनि शब्द पद पद समूह - वाक्य
Ø  पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति करानेवाले शब्द समूह को वाक्य कहते हैं ।
Ø  वाक्य के क्रमिक अध्ययन वाक्य विज्ञान कहते हैं ।
Ø  वाक्य विज्ञान, पदों के पारस्परिक संबंध का अध्ययन है ।

वाक्य संबंधी विचारधाराएँ

Ø  वाक्य की मीमांसा करते हुए चिंतक दो धाराओं में बंट गए ।
Ø  1. अभिहितान्वयवाद (पदवाद) वाक्य में पद का महत्व है ।  अतः पद की सत्ता होती है, वाक्य की नहीं, क्योंकि पदों को जोड़ने से ही वाक्य बनता है ।
Ø  2. अन्वितभिधानवाद (वाक्यवाद) वाक्य तोड़ने से ही पद बनते हैं ।  अतः वाक्य का ही महत्व है ।  पद इसका एक हिस्सा मात्र है ।  पद की अलग से कोई सत्ता नहीं है ।

वाक्य की आवश्यकताएँ

          आचार्य विश्वनाथ के अनुसार वाक्य तीन तत्वों की अपेक्षा रखता   है ।  ये तीन तत्व हैं 1.आकांक्षा 2. योग्यता और 3. आसत्ति ।
          आधुनिक विचार पाँच तत्व मानते हैं (4.सार्थकता और 5.अन्विति)
        आकांक्षा वाक्य तब पूर्ण माना जाता है जब वह संपूर्ण अर्थ को संप्रेषित करे ।
        पुस्तक कहने से पूरा अर्थ प्रतीत नहीं हो । - पुस्तक अच्छी है इन तीनों शब्दों के योग से वाक्य बनता है तथा श्रोता की आकांक्षा को यह वाक्य पूरा करता है ।
          योग्यता सही अर्थ संप्रेषण की क्षमता ही योग्यता कहलाती है ।
          वाक्य में शब्दों की एक-दूसरे से संगति सही हो, यह जरूरी है ।
          आसत्ति सन्निधि या समीपता को ही आसत्ति कहते हैं । शब्दों के कथन में एक निश्चित समीपता होनी चाहिए ।
          राम   - एक घंटे के बाद -        घर  चार घंटे के बाद -           जाता है ।
          राम   - छः पृष्ठ बाद -          घर  दसवें पृष्ठ में -             जाता है ।
           
          पानी से प्यास बुझती है – तर्क संगत वाक्य
          प्यास से पानी बुझता है यह संगति नहीं है । इसे अयोग्यता माना जाता है ।
          सार्थकता पूर्ण अर्थ देनेवाले को वाक्य कहते हैं । यह एक शब्द में भी प्रसंग के अनुकूल अर्थ दे सकता है और कई पदों का समुच्चय भी हो सकता है ।
          यह का घर राम है    ।
          यह राम का घर है    ।
          अन्विति व्याकरणिक दृष्टि से शुद्धता, लिंग, वचन, कारक आदि में तृटि या दोष नहीं होना चाहिए ।
          गाय जा रहा है - (लिंग और क्रिया में अन्विति नहीं है) –
          लड़के जा रहा है - (वचन और क्रिया में अन्विति नहीं है)
          1.आकांक्षा 2. योग्यता 3. आसत्ति 4.सार्थकता और 5.अन्विति - ये पाँच वाक्य की अपेक्षाएँ हैं ।

वाक्य की विशेषताएँ

          1.वाक्य शब्दों का समूह है
          2. वाक्य भाषा की प्राकृतिक इकाई है
          3. व्याकरणिक दृष्टि से पूर्ण
          4. वाक्य में क्रिया की अनिवार्यता

वाक्य रचना विधान 

          1. अन्वय (व्याकरणिक अनुरूपता) वाक्य रचना में अन्वय की अनिवार्यता होती है । अर्थात् वाक्य में प्रयुक्त पदों में व्याकरण की दृष्टि से अनुरूपता होती है ।
          जैसे क्रिया, कर्म, लिंग, वचन, विशेषण आदि के अनुरूप वाक्य रचना की जाती है ।
          मोहन जाता है ।                 मोहनः गच्छति ।
          राधा जाती है ।            राधा गच्छति ।
          2. क्रमबद्धता वाक्य में शब्दों की क्रमबद्धता आवश्यक गुण है । अर्थात् कर्ता, क्रिया और कर्म की ऐसी संगति होनी चाहिए जिससे अर्थ में परिवर्तन न आए ।
          श्याम ने मोहन को मारा ।               
          मोहन ने श्याम को मारा । - दोनों में शब्द वही हैं सर्फ क्रम बतलने मात्र से अर्थ बदल जाता है ।
          अतः सही अर्थ देने के लिए सही क्रमबद्धता का होना आवश्यक है ।
          3. आगम अज्ञानतावश वाक्यों में पुनरुक्ति दोष आ जाता है, ऐसी पुनरुक्तियाँ वाक्य रचना का अंग बन जाती हैं जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए ।
          4. लोप कभी-कभी वाक्य में कुछ शब्दों की आवश्यकता महसूस नहीं होती ऐसे शब्दों का लोप कर दिया जाता है ।
          क्या राम पुस्तक पढ़ रहा है ?      
          नहीं, राम पुस्तक नहीं पढ़ रहा है । (छः शब्दों का लोप)

वाक्यों के प्रकार

          वाक्यों के प्रकारों के अथवा विभाजन के कई आधार हैं, परंतु भाषा विज्ञानियों ने इसके मुख्यतः दो आधारों को मान्यता दी है 1. आकृतिमूलक 2. रचनागत
          आकृतिमूलक प्रकारों के भी दो भेद हैं 1. योगात्मक 2. अयोगात्मक



  
वाक्य-रचना में परिवर्तन के कारण

          1. अन्य भाषा का प्रभाव
          2. ध्वनि-परिवर्तन से विभक्तियों और प्रत्ययों का घिस जाना
          3. स्पष्टता तथा बल के लिए अतिरिक्त शब्दों का प्रयोग
          4. नवीनता
          5. बोलनेवालों की मानसिक स्तिति में परिवर्तन
          6. संक्षेप में बोलना
          7. बल के लिए क्रम परिवर्तन

वाक्य-रचना में परिवर्तन की दिशाएँ

          1. वचन-संबंधी परिवर्तन
          2. लिंग-संबंधी परिवर्तन
          3. पुरुष-संबंधी परिवर्तन
          4. लोप
          5. आगम
          6. पदक्रम में परिवर्तन
***

Wednesday, October 10, 2012

ध्वनियों का वर्गीकरण



ध्वनियों का वर्गीकरण

स्वरों का वर्गीकरण

अ.     स्थान के आधार पर
  1. कंठ्य स्वर     
  2. तालव्य        - इ
  3. मूर्धन्य             - ऋ
  4. दंत्य          - लृ
  5. ओष्ठ्य             - उ
  6. अनुनासिक      - अँ
  7. कंठतालव्य      - ए,
  8. कष्ठोष्ठ्य       - ओ,
  9. दंतोष्ठ्य - व ( इसे अर्ध स्वर कहा जाता है
आ.   प्रयत्न के आधार पर
  1. जिह्वा के भागों की दृष्टि से
अग्र स्वर       – 
मध्य स्वर     
पश्च स्वर      , , ,
2. जिह्वा की ऊँचाई की दृष्टि से
विवृत (मुख-विवर पूरा खुला हो, जीभ निश्चेष्ट पड़ी हो)                    ,
अर्ध-विवृत (मुख-विवर लगभग पूरा खुला हो, जीभ एक तिहाई उठी हो)        – ऐ,
अर्ध-संवृत (मुख-विवर संकरा हो, जीभ दो तिहाई उठी हो)                   ,
संवृत (मुख-विवर अत्यंत संकरा हो, जीभ बहुत ऊपर उठी हो या चंचल हो)     , , ,
3. ओष्ठों की आकृति की दृष्टि से
वृत्ताकार (वृत्तमुखी स्वर)        – उ, , ,
अवृत्ताकार                    , , ,
उदासीन                            
4. बल अथवा मात्रा की दृष्टि से  
उच्चारण में लगने वाले बल अथवा समय को मात्रा कहते हैं ।
ह्रस्व                 , ,
दीर्घ                  , ,
प्लुत -              
5. स्वर तंत्रियों की स्थिति के अनुसार
घोष स्वर  –   हिंदी के सभी स्वर घोष होते हैं क्योंकि निःश्वास को बाहर निकलते समय स्वर तंत्रियों से घर्षण करना पड़ता है ।
अघोष स्वर, , (स्वर तंत्रियों में घर्षण कम होता है)
6. कोमल तालु तथा अलिजिह्वा की स्थिति के अनुसार     
       मौखिक –  , , ए आदि (ये दोनों अंग जब नासिर-विवर को पूरी तरह बंद कर देते हैं, तब हवा केवल मुख मार्ग से निकलती है ।  ऐसे में उच्चरित होने वाला स्वर मौखिक होता है ।)
  अनुनासिकआँ, एँ (जब यह अंग मध्य स्थिति में होते हैं तो वायु मुख और नासिका दोनों ही मार्गों से निकलती है,  ऐसी ध्वनि को अनुनासिक कहते हैं)
       अनुनासिक स्वर ध्वनियाँ दो प्रकार की होती हैं ।
पूर्ण अनुनासिक                – आँ, एँ
अपूर्ण अनुनासिक (नासिक्य व्यंजनों के आधार पर, स्वर उच्चारण में आंशिक अनुनासिक, मगर लेखन में अपूर्ण अनुनासिक चिह्न नहीं लगाया जाता है)  – राँम् र् आँ म् (राम)

व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण

  1. स्वरयंत्र मुखी – (इन ध्वनियों में स्वरयंत्रमुख का ही महत्वपूर्ण स्थान होता है) ह तथा विसर्ग (:)
  2. काकल या अलिजिह्वीय (काकल या अलिजिह्वा से उच्चरित होनेवाली ध्वनियों को काकल्य व्यंजन कहा जाता है) क़, ख़, ग़ आदि (अरबी की ध्वनियाँ)
  3. कंठ्य   , , ,
  4. तालव्य , , , ,
  5. मूर्धन्य , , , , ,
  6. वर्त्स्य ह्न ( ह् न ), , , ,
  7. दंत्य    , , , ,
  8. ओष्ठ्य , , , ,
  9. दंतोष्ठ्य        , फ़
आभ्यांतर प्रयत्न का वर्गीकरण
  1. स्पर्श व्यंजन – (दाँत का जिह्वा से अथवा दोनों ओष्ठों या फिर जिह्वा व तालु का स्पर्श होने से ये ध्वनियाँ उच्चरित होती हैं) हिंदी में कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग (25 व्यंजन)
  2. स्पर्श संघर्षी– (मुखद्वार को बंद करके बोलते समय हवा स्थानों कुछ  रगड़ती चलती है) च्, छ्, ज्, झ् ।
  3. अनुनासिक (मुखद्वार बंद करके खोला जाता है, किंतु साथ ही नासिका विवर भी खुला रहता है) ङ्.ञ्, ण्, न्, म ।
  4. पर्श्चिक – (मुखद्वार बीच में बंद हो जाता है और हवा दोनों ओर से निकल जाती है)
  5. लुंठित – (जीभ की नोक मसूड़े पर जाती है, पर वहाँ दो-तीन बार जल्दी-जल्दी श्वास को रोककर छोड़ देती है । - र्
  6. उत्क्षिप्त जिह्वा-नोक उलटकर झटके के साथ तालु को छूकर जब हट जाती है, तब इस ध्वनि की उत्पत्ति होती है ।  - ड़, ढ़
  7. अर्द्ध-स्वर – (मुखद्वार सँकरा करते हैं, परंतु इतना नहीं कि श्वास के निकलने में घर्षण हो ।  ये ध्वनियाँ व्यंजन तथा स्वर के बीच में पड़ती हैं) ,
बाह्य प्रयत्न

  1. अघोष (स्वर तंत्रिया एक दूसरी से अलग-अलग रहती हैं तथा निःश्वास से उनमें कंपन भी बहुत कम होता है) हिंदी में प्रत्येक वर्ग की प्रथम द्वितीय ध्वनियाँ तथा श, , स अघोष ध्वनियाँ हैं । - क-ख, च-छ, ट-ठ, त-थ, द-ध, प-फ ।
  2. घोष – (जिनमें स्वर तंत्रियाँ परस्पर नज़दीक आती हैं तथा उमनें कंपन होता है) प्रत्येक वर्ग की तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम् ध्वनियाँ ग-घ-ङ, ज-झ-ञ आदि ।
  3. अल्प प्राण – (उच्चारण में प्राणवायु की मात्रा न्यून होती है) प्रत्येक वर्ग की प्रथम, तृतीय, पंचम ध्वनि क-ग-ङ आदि ।
  4. महा प्राण – (उच्चारण में निश्वास का अधिक प्रयोग होता है ) प्रत्येक वर्ग की दूसरी और चौथी ध्वनियाँ ख-घ, छ-झ आदि ।
  5. विवार – (स्वर तंत्रियाँ पूर्णतः खुली हों, और उस समय जो ध्वनियाँ उच्चरित हों तो उन्हें विवार ध्वनियाँ कहा जाता है ) , , , , प आदि ।
  6. संवार – (जब स्वर तंत्रियाँ बंद होती हैं तथा ध्वनियाँ उच्चरित हों तो उन्हें संवार ध्वनियाँ कहा जाता है ) , , , ब आदि ।
  7. श्वास जब मुख विवर में प्रश्वास- निःश्वास की क्रिया निरंतर जारी रहती है तथा ध्वनियों का उच्चारण बिना किसी बाधा के होता है उन्हें श्वास ध्वनियाँ कहा जाता है) , , ठ आदि
  8. नाद – (उच्चारण में श्वास-प्रश्वास की क्रिया निरंतर अबाधित नहीं रहती बल्कि स्वर तंत्रियों में कंपन पैदा होता है तो नाद ध्वनियाँ उच्चरित होती है) , , न आदि ।